सन 1966 में एक कार्यक्रम में युगऋषि प्रवस पर थे। कार्यक्रम के आयोजकों ने उन्हें अपने घर ठहराया। उनके आने की खबर सुनकर आसपास के बहुत लोग आ जुटे थे।
इसी सिलसिले में पड़ोस की नव विवाहिता लड़की आयी। वेश-विन्यास की तड़क-भड़क के अतिरिक्त उसने ढेरों गहने-जेवर पहन रखे थे। परिवार की बातें,व्यक्तिगत कष्ट कठिनाई पूछने के बाद स्नेह भरे स्वर में बोले, अरे तूने इतने गहने क्यों लाद रखे हैं।
सुनकर वह हँसते हुए बोले -
फिर थोड़ा गंभीर होकर बोले -
कहते-कहते उनके ह्रदय की कोमलता सजीव हो उठी। नारी के प्रति उनकी इस जीवन्त सम्वेदना में उपस्थितजनों को ईश्वरचंद्र विद्यासागर के कर्तत्व का सादृश्य अनुभव हुआ।
पृष्ठ - ४, (स्मृति विशेषांक 🔅 अगस्त सितम्बर 1990)
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